छत्तीसगढ

बस्तर का ऐतिहासिक दशहरा पर्व : बस्तर दशहरा के बारे में जाने विस्तार से राष्ट्रवादी न्यूज के साथ…

राष्ट्रवादी न्यूज ऑफिस डेस्क :  दुनिया के किसी भी आदिवासी इलाके की तरह बस्तर के आदिम समाज में भी काल्पनिक देवी-देवताओं का मानसिक साम्राज्य पूरी दृढ़ता से अपनी जड़ें जमाये हुये है। यह और बात है कि यहाँ के आदिवासी अपने व्यक्तित्व और व्यवहार में स्वंय उन देवी देवताओं से भी अधिक शक्तिशाली हैं, जिन्हें वे स्वयं से भी अधिक शक्तिशाली मानते आ रहे हैं। दरअसल दिल को दहला देने वाली घोर गरीबी में जैसे-तैसे, गुजर-बसर कर रहे बस्तर के आदिम समाज को अपनी शक्ति का अहसास नहीं है।

धर्म थके हारे मनुष्यों की लाचारी का ही दूसरा नाम है। बस्तर का आदिम लोक जीवन अपनी ऐतिहासिक शक्ति को भूलकर इस वैज्ञानिक युग में भी अगर अदृश्य देवी-देवताओं के सम्मोहन में बंधा हुआ है तो, उसके पीछे भी उसकी यह लाचारी ही है। धर्म पर आधारित यह सम्मोहन ही उसे भरोसा दिलाता है कि अगला जन्म इससे भी बेहतर होगा।

उसे न तो अतीत की स्मृतियाँ कुरेदती है और न ही भविष्य की चिंता सताती है। किसी भी अंचल या धरती के लिये किसी टुकड़े की लोक संस्कृति तत्कालिन लोक मानस और परिस्थितियों पर निर्भर करती है। युग की बदली हुई परिस्थितियों से अन्र्तक्रिया करते हुये जब लोक मानस और लोक बदलता है तब, लोक संस्कृति का परिवर्तन सहज स्वाभाविक है, यह बात अलग है कि यह परिवर्तन लोक की प्रकृति के अनुसार होने से उतना प्रभावी न प्रतीत होता हो जितना कि उच्चवर्गीय संस्कृति में संभव होता है।

यही है आदिवासियों के उल्लासमय, सादगीपूर्ण नृत्य संगीत से पूर्ण जीवन का रहस्य। प्राकृतिक और पारिवारिक सुख को दैवीय प्रकोप मानकर पूरी भक्ति और श्रद्धा के साथ अपनी कृतज्ञता प्रकट करते हुये अराधना के स्वर में झूम उठता है, यहीं से प्रारंभ होती है आदिवासियों के त्योहारों और मेलों की श्रृंखला, जो कि उनके संघर्षशील और श्रमसाध्य जीवन में वर्ष भर उल्लास और मधुरता घोले रहती है।

बस्तर के आदिवासियों की अभूतपूर्व भागीदारी का ही प्रतिफल है कि बस्तर दशहरा की राष्ट्रीय पहचान स्थापित हुई है। छ.ग. के जगदलपुर नगर में दशहरा अत्यन्त गरिमा और सांस्कृतिक वैभव के साथ मनाया जाता रहा है। भूतपूर्व बस्तर रियासत में टेम्पल व्यवस्था के तहत पूर्णतः सार्वजनिक दशहरा पर्व मनाया जाता था। समय बदला, व्यवस्था, परिस्थितियाँ बदली, समाज बदला और इसके साथ मनुष्य का जीवन भी बदला। शासन ने जन भावनाओं का सम्मान करते हुए इसमें अपनी रचनात्मक भूमिका निर्धारित की। ऐसी भूमिका कि यह परम्परा लगातार विकसित होती रहे।

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बस्तर के जनजातीय समाज में पशु-पक्षियों की बलिप्रथा बहुतायत में पाई जाती है। कई मामलों में देवी-देवताओं के पसंद के अनुरूप तथा रंग के आधार बलि दी जाती है। कई बार संबंधित देवी-देवताओं को खुश करने के उद्धेश्य से रंग विशेष का बकरा अर्पित करने का मन्नत मांगता है जो पूर्ण हो जाने के बाद उसे पूरा करता है, अपने आप में महत्व रखता है।

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