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जब 180 में सिर्फ 37 ही मुसलमान, तो कैसे हुआ अल्पसंख्यक संस्थान; SC ने AMU से कहा- साबित करो …

करीब सौ साल पुराना अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (AMU) अपने अल्पसंख्यक दर्जे को लेकर अदालती लड़ाई लड़ रहा है।

उसके अल्पसंख्यक संस्थान होने के दावे पर सुप्रीम कोर्ट ने सवाल खड़े किए हैं। बुधवार को सात सदस्यों वाली संविधान पीठ ने कहा कि जब विश्वविद्यालय के 180 सदस्यों वाले गवर्निंग काउंसिल में सिर्फ 37 ही मुसलमान ही हैं तो फिर यह विश्वविद्यालय अल्पसंख्यक संस्थान कैसे हो सकता है।

मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़, जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस जे बी पारदीवाला, जस्टिस दीपांकर दत्ता, जस्टिस मनोज मिश्रा और जस्टिस सतीश शर्मा की खंडपीठ ने विश्वविद्यालय प्रशासन से पूछा है कि वह अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा साबित करे।

विश्वविद्यालय की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव धवन ने मामले की पैरवी की।

इस दौरान पीठ ने राजीव धवन का ध्यान AMU की गवर्निंग काउंसिल की संरचना की ओर आकर्षित कराया, जिसे AMU Act के तहत ‘विश्वविद्यालय का न्यायालय’ कहा जाता है, और पूछा कि क्या इसकी गैर-मुस्लिम प्रकृति यूनिवर्सिटी के अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान (MEI) होने के दावे को कमजोर कर सकता है?

इसके जवाब में धवन ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 30(1) के तहत, सभी धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यक समुदायों को “अपनी पसंद के शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने और प्रशासित करने” का अधिकार है।

उन्होंने बताया कि मुसलमानों ने एकसाथ आकर 1875 में मुहम्मदन एंगो-ओरिएंटल (MAO) कॉलेज की स्थापना की थी, जो बाद में 1920 में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के रूप में तब्दील हो गया।

इसके बाद जैसे ही विश्वविद्यालय के प्रशसन पर बात होने लगी, तब सीजेआई ने पूछा कि क्या कानून के अनुसार, 180 सदस्यों में से 37 का मुस्लिम होना आवश्यक है।

उन्होंने पूछा, “क्या इससे इस पर कुछ प्रभाव पड़ सकता है कि किसी अल्पसंख्यक संस्थान का संचालन अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा ही किया जाना चाहिए? यदि अनुच्छेद 30 के तहत प्रशासन शामिल है, तो क्या 180 में सिर्फ 37 मुस्लिम सदस्य अल्पसंख्यक संस्थान के लिए पर्याप्त है? क्या यह अल्पसंख्यक संस्थान के रूप में अर्हता प्राप्त करने की योग्यता पूरा करता है?”

इसके जवाब में धवन ने कहा कि चूंकि यह संस्थान अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा स्थापित किया गया था और इसका उद्देश्य अल्पसंख्यक समुदाय की जरूरतों को पूरा करना था, इसलिए यह जरूरी नहीं कि अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा बनाए रखने के लिए उसके प्रशासन को 100% अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा ही नियंत्रित करने की आवश्यकता हो।

धवन ने ये भी तर्क दिया और कहा, “एएमयू की स्थापना के बाद से ही इसके सभी कुलपति मुस्लिम रहे हैं। इसलिए, यह वास्तव में अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा प्रशासित ही कहा जाएगा।

एएमयू की अन्य विशेषताओं की प्रकृति भी इस्लामिक हैं। केवल इसलिए कि प्रशासन में सरकार का दखल है, इसलिए विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक चरित्र को खारिज नहीं कर सकते। खासकर वैसे संस्थान को जिसे मुसलमानों द्वारा मुसलमानों के शैक्षिक उत्थान के लिए स्थापित किया गया था।”

केंद्र सरकार की तरफ से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि AMU किसी विशेष धर्म या धार्मिक संप्रदाय का विश्वविद्यालय नहीं है और न ही ऐसा हो सकता है क्योंकि कोई भी विश्वविद्यालय जिसे राष्ट्रीय महत्व का संस्थान घोषित किया गया है वह अल्पसंख्यक संस्थान नहीं हो सकता है।

बता दें कि केंद्र सरकार ने विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक दर्जे को खारिज कर दिया है, जबकि मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार ने ये दर्जा दिया था।

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